शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

La casa de Bernarda Alba या रुक्मावती की हवेली

La casa de Bernarda Alba या रुक्मावती की हवेली

फ़ेदेरिको गार्सिया लोरका का नाम भारतीय पाठकों के लिए अंजान नहीं है। वे एक स्पेनी नाटककार और कवि के रूप में तो मशहूर थे ही, साथ ही उन्होनें कई सुंदर निबंध भी लिखें हैं। बीसवीं साहित्य के वे सर्वाधिक लोकप्रिय स्पेनी साहित्यकारों में से एक हैं। एक नाटककार के रूप में वे आधुनिक स्पेनी साहित्य के शीर्ष स्तंभों में से एक हैं।

उनके कई मशहूर नाटकों में से मशहूर नाटक है : La casa de Bernarda Alba। यह कई भाषाओं में अनूदित हो चुका है, और शायद यह नाटक अब हिन्दी में भी उपलब्ध है, लेकिन हिन्दी में गोविंद निहलानी ने इसी नाटक को आधार बनाकर 1991 में एक फिल्म बनाई, जिसका नाम उन्होनें रखा, रुक्मावती की हवेली।

लोरका की रचनाओं में ग्राम्य जीवन अपनी तमाम खूबियों और विसंगतताओं के साथ उपस्थित होता है। यह तीन अंकों का नाटक है, और इसमें कोई पुरुष पात्र  नज़र नहीं आता है, इस तरह से हम यह कह सकते हैं कि इस नाटक में कोई पुरुष पात्र नहीं है। पुस्तक में बेरनारदा आल्बा के परिवार को दिखाया गया है।

बेरनारदा आल्बा एक साठ वर्षीय महिला है, और वह दूसरी बार विधवा होने के कारण एक लंबे अरसे तक वैधव्य शोक को धारण करती हैं। यह बात परिवार में उसकी पाँच बेटियों आंगुस्तिआस, माग्दालेना, आमेलिया, मारतिरिओ और आदेला, किसी को भी पसंद नहीं है। सब अपने अपने तरह से एक खुशहाल ज़िंदगी का सपना देखते हैं। ये सारे नाम प्रतिकात्मक हैं। बेरनारदा की माँ, मारीया जो एक अस्सी वर्षीय वृदधा हैं, उनकी बातों में भी सच भरा पर है, लेकिन उन्हें सुनने वाला कोई नहीं है। इसी दौरान कहीं से एक लड़का पेपे का जिक्र होता है। आंगुस्तिआस की उम्र लगभग 40 की है, वह अपनी दूसरी बहनों की तरह ही शादी करके अपना घर बसाना चाहती है। एक पुरुष प्रधान समाज में किसी को भी अपनी माँ की बन्दिशें पसंद नहीं। पिता की जायदाद की वारिस बड़ी बेटी बनती है, और इस वजह से पेपे उस पर अनुरक्त हो जाता है। नाटक का अंत आदेला द्वारा आत्महत्या कर लिए जाने से होता है, और उसकी माँ बड़े संताप से कहती है, मेरे बेटी क्वाँरी ही चल बसी। यह वाक्य नाटक के एक बड़े सच की ओर इशारा करता है, जिसका अंदाज़ा पढते वक्त नहीं होता। 

लोरका के कुछ नाटकों का हिन्दी अनुवाद 2009 में स्पेन सरकार से सहयोग से हुआ है। स्पेनी से हिन्दी में अनुवाद अरुणा शर्मा ने किया है। अच्छे साहित्य पढ़ने के शौकीनों को यह किताब अवश्य ही पढ़नी चाहिए। इसी विषय पर एक सुंदर ब्लॉग भी अङ्ग्रेज़ी में उपलब्ध है, http://bernarda-alba.blogspot.com/ जहां भारत में खास तौर इस नाटक के रंगमंच प्रस्तुति के ऊपर विस्तार से जानकारी दी गई है। 

(अगर कहीं से किसी कॉपी राइट का उल्लंघन होता है, तो ब्लॉग लेखक क्षमा प्रार्थी है, और सूचित करने के बाद यह जानकारी ब्लॉग से निकाल दी जाएगी। )

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

उड़ीसा सरकार का समर्पण

उड़ीसा सरकार का समर्पण

आज सुबह जब मैंने दैनिक जागरण का वेब पेज खोला, तो उसमें अपहृत जिलाधिकारी आर वी कृष्ण और कनिष्ठ अभियंता पबित्र मांझी की रिहाई की खबर मुझे मिली क्योंकि उड़ीसा सरकार ने उनकी अधिकांश मांगे मांग ली है। यह खबर पढ़कर अन्य देशवाशियों की तरह ही मेरा मन दुख और क्षोभ से भर उठा। 

मेरे मन में ढेर सारी बातें आईं। मैंने सोचा कि जब हम अपने ही जमीन पर इस तरह का आत्मसमर्पण कर सकते हैं, तो जब हमें बंग्लादेश आँखें दिखाता है, तो क्या गलत करता  है ? पाकिस्तान और चीन तो बड़े खतरे हैं, उनसे हम पार भी नहीं पा सकते हैं। मेरे मन में कलाम का विजन 2020 भी आया, जिसमें वे भारत को 2020 में सुपर पावर बनाने की बात करते हैं। अगर इस तरह से हम आतंकवादियों के सामने आत्म समर्पण करते रहें तो उनके हौसलों को और पर लगते रहेंगे। 

कांधार कांड को हम भूलें नहीं है। यह हमारे स्वामिभान पर एक बड़ा हमला था। कई बार एक देश के रूप में हमने  यह अंदाज़ा लगाने की कोशिश भी की है, अगर हम आतंकवादियों को नहीं छोडते तो क्या होता? फिर हमने कुछ नियम कायदे भी बनाए कि अपहरण जैसी परिस्थिति में हम क्या करेंगे। हमने इतनी काबिल फौज और पुलिस भी खड़ी की है, जो हमें बाहरी और अंदरूनी दुश्मनों से रक्षा करने में समर्थ है। फिर संसद पर हमला होता है, और आज अखबार में पढ़ने को मिलता है कि अफजल गुरु की जीवन दान की याचिका राष्ट्रपति के पास भेजी ही नहीं है, ताकि हम उसे बैठा कर खिलाते रहें। कसाब के मामले में भी हमें समय लगेगा, तो क्या इससे देश के दुश्मन और मजबूत नहीं हो रहें? 

हाँ इस श्रेणी के गद्दारों में मैं एक और वर्ग का नाम लेना चाहूँगा, जो माओवादियों के खामोश समर्थक है, और जो शहरों में रहकर उनके लिए एक वैचारिक जमीन तैयार करते हैं। अरुंधति रॉय तो अब देश विरोधी बयान ही देने का काम करती हैं। ये वही लोग है, जिन्हें देश नहीं नज़र आता। 

कौन कमजोर है, न्यायपालिका या नेता? मुझे नहीं लगता कि हमारे बहादुर सिपाही कहीं से कमजोर हैं, क्योंकि नारायणपुर में  घात लगा कर उनपर बेरहमी से हत्या कर दी जाती है और हमारे नेता बस यूंही देखते ही रह जाते हैं। कहीं से कोई कार्रवाई नहीं। आज हम एक अधिकारी को बचाने के लिए आतंकवादियों से सौदा करते हैं, तो कल ये किसी नेता का अपहरण करेंगे तो हम किस स्तर तक नीचे गिरेंगे? यह एक सोचने लायक विषय है। सिर्फ देशभक्ति के नारे लगाकर देश नहीं मजबूत बनता है। 

सच में हम कहीं से भी मजबूत नहीं है। अपने घर में भी हम सुरक्षित नहीं.... 
ये हालात कब बदलेंगे? समस्याओं की तरह प्रश्न बहुत है, समाधान नहीं।