मंगलवार, 3 जून 2014

खुआन कार्लोस I का जाना

कल शाम जब मैं रेडियो सुन रहा था, तो मुझे पता चला कि स्पेनी सम्राट खुआन कार्लोस I वृद्धावस्था और स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के कारण अपनी गद्दी छोड़ रहे हैं।  आखिर कौन हैं ये सम्राट ?

चूँकि हिंदी पाठकों का स्पेनी दुनिया से कम ही सम्बन्ध होता है, इस लिए उन्हें विस्तार से बताने के लिए मुझे थोड़ा से पीछे जाना होगा।  स्पेन में राजशाही की लम्बी परंपरा रही है और पहली बार पूरा स्पेन सन 1492  ई. में एकीकृत राजशाही के अंदर आया था।  तब से ले कर अब तक सिर्फ दो छोटी छोटी काल अवधियों  (प्रथम गणतंत्र 1873 – 1874 तथा  दूसरा गणतंत्र 1931 – 1939) को छोड़ कर स्पेन में राजाओं ने ही शासन किया हैं, और आम जानता का भरपूर समर्थन इनके साथ रहा है।  मैं अपने अगले ब्लॉग में इन दो अवधियों के बारे में विस्तार से लिखूंगा
। 

पुनर्जागरण काल और बार्रोक काल के इतिहाकारों और नीतिनिर्धारकों ने स्वतंत्र रूप से इस बात की विवेचना की है कि स्पेन के लिए सम्राट क्यों जरूरी है, मगर ऐसा तत्कालीन दूसरी यूरोपियन शक्तियों ने अपने सम्राट का विस्तृत विवेचन और उनकी उपयोगिता का स्वतंत्र परीक्षण नहीं किया है।

खैर, मूल विषय पर वापस लौटते हुए हम  सन 1936 में वापस लौटते हैं और देखते हैं कि सन 1936 से लेकर 1939  तक स्पेन में भीषण गृहः युद्ध हुआ। इस गृहयुद्ध में एक तरफ तो वामपंथी शक्तियां थी तथा दूसरी ओर परम्परावादी शक्तियां थी।  परंपरावादी शक्तियों में चर्च और राजशाही के समर्थक शामिल थे।  यह एक लम्बी कहानी है और अंततः एक स्पेनी जनरल  फ्रांको में स्पेन की गद्दी हथिया ली और राजकुमार  खुआन कार्लोस को अध्ययन के लिए बाहर भेज दिया। अपनी वसीयत में जनरल फ्रांको ने राजकुमार कार्लोस को गद्दी का वारिस बनाया। 
सम्राट खुआन कार्लोस I

22 नवम्बर 1975 को गद्दी पर बैठे एक नए राजा के लिए चुनौतियां कम नहीं थी। एक तरफ तो लोकतंत्र की स्थापना करनी थी तो वहीँ स्पेनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना था। दूसरी तरफ तानाशाही के कारण खोयी प्रतिष्ठा को भी वापस लाना था। सम्राट ने अपने कार्यों को पूरी तरह से पूरा किया। ऐसी बात नहीं है कि इस के लिए उन्हें विरोध का सामना न करना पड़ा हो। 23  फरवरी 1981  को सैनिकों के एक धड़े ने तख्ता पलट की कोशिश की और स्पेन की संस्सद को बंधक बनाने की कोशिश की। उन्हें जनता ने पूरी तरह से नकार दिया और सम्राट के शालीन व्यवहार ने सबका दिल जीत लिया।    

आने वाले वर्षों में सम्राट ने असीम लोकप्रियता पाई, मगर शासन के अंतिम वर्षों में उनके दामाद इन्याकि उरदंगारिन के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोपों, बढ़ती महंगाई, बेरोज़गारी, आर्थिक संकट के कारण उनकी लोकप्रियता में काफी कमी आई। स्पेनी राजा ने कुछ समय पहले ही  अपने उत्तराधिकारी फेलिपे VI को शासन त्यागने के बारे में अवगत कर दिया था। उत्तराधिकार की इस प्रक्रिया में तीन से छह हफ्ते लगने की संभावना है

आबादी का एक बहुत छोटा हिस्सा स्पेन को गणतंत्र बनाने के लिए सहमत है, मगर स्पेनी राजशाही बहुत ही लोकप्रिय है। इसलिए, इस बात की संभावना बहुत कम ही है कि  निकट भविष्य में स्पेन में गणतांत्रिक शक्तियां को जनता का मामूली समर्थन भी मिल पायेगा, संविधान संशोधन तो दूर की बात है।


बुधवार, 16 मई 2012

The Tsarina´s daughter या जार की लड़की

कुछ दिनों पहले रूस के आखिरी ज़ार निकोलस II की दूसरी लड़की तात्याना रोमानोवा की ज़िंदगी के ऊपर आधारित यह बहुचर्चित किताब बाज़ार में आई थी। संयोगवश, मुझे यह दिख गई, और मैंने सोचा कि यह उपन्यास आकर्षक लग रहा है, क्यों न इसे खरीद लिया जाए... अगर यह उबाऊ हो तो ऐतिहासिक पात्रों को जानने समझने का मौका मिलेगा, मगर, यह किताब पहले ही पन्ने से बहुत रोचक निकली। अगर रूसी राजकुमारी तात्याना सामूहिक कत्लेआम जीवित बच निकलती, तो यह उनके जीवन पर आधारित एक रोमांचक कहानी होती, मगर चूंकि यह एक ऐतिहासिक उपन्यास है, तो सारी कहानी फ्लैश बैक के जरिये चलती है। साइबेरिया के नजदीक, टोबोल्स्क शहर में रूसी शाही परिवार की सामूहिक रूप से हत्या कर दी गई थी। बाद में ऐसे कई अफवाह सुनने को मिले, जिसमें तात्याना की बड़ी बहन राजकुमारी आंतासिया के बच निकलने की खबरें सामनें आई थी, लेकिन 1991 ई॰ में डी एन ए टेस्ट के बाद इन सारे अफवाहों को समाप्त कर दिया गया।

कहानी तात्याना शुरू करती है, हालांकि अगर इसे राजकुमारी आंतासिया शुरू करती तो यह और भी रोचक होता तथा सत्यता का पुट इसमें कहीं और ज्यादा होता। कहानी अमरीका से शुरू होती है, जिसमें राजकुमारी तात्याना, वृद्धावस्था में अपने पिता निकोलस के राज दरबार, उसके वैभव और उनमें बसी षडयंत्रों को विस्तार से दिखाती है। वह यह भी बताती है कि कैसे उसकी माँ पादरी रासपुतिन के प्रभाव में थी, जिसके पास कई चमत्कारिक शक्तियाँ थीं। फिर, इस पुस्तक में जापान और रूस के प्रथम युद्ध और उसमें रूस के द्वारा सामना किए गए हार का त्राषद उल्लेख है। साथ ही, मजदूरों के अभाव ग्रस्त जीवन और उनके असंतोषों का भी विवरण है। राजकुमारी के आकर्षण और उनके प्रेम का भी हल्का चित्रण है। बाद में, यह पुस्तक उस उस समय एकदम से घूमती है, जब रूसी शाही परिवार को कत्ल करने के लिए ले जया जाता है। दरिया, मिखाइल जैसे कई पात्र भी डाले गए हैं, जो वास्तविक रूप से  नहीं हैं।

यह उपन्यास यह भी बतलाती है कि पारिवारिक सम्बन्धों के जरिये जर्मन, अंग्रेज़, और रूसी राजपरिवार कैसे एक दूसरे से जुड़े हुये थे, तथा उस समय जर्मनी की बढ़ती ताकत को रोकने कैसे और दूसरे राज परिवार एक जुट हो रहे थे।
संक्षेप में, यह एक रोक पठनीय किताब है। कहीं अगर यह दिख जाए, तो पढ़ने से हिचकिचाएगा नहीं....

मंगलवार, 15 मई 2012

आह आइस क्रीम !

आह आइस क्रीम!

गर्मियों के इस मौसम में हम सब कुछ न कुछ स्वादिष्ट और तरो ताज़ा कर देने वाली चीज़ों को खाना पीना पसंद करते हैं. कुछ लोग चुस्की का सहारा लेते हैं, तो कुछ शरबत का. कई लोग पुदीने का पानी भी पीते हैं, जो मसालेदार होता है. आम का शरबत भी हमें खूब सहारा देता है.  हमारी बदलती जीवन शैली के कारण अब आम का शरबत और पुदीने का पानी तो घर में पीने को मिलता ही नहीं है. गृहणियां अब बच्चों को पैसे देती हैं, ताकि वो कोल्ड ड्रिंक पी सके, और  बाज़ार हमें समझाता है कि "ठंडा मतलब कोका कोला."

यह सिलसिला आज से नहीं है. मुझे याद है कि  जब हम बच्चे थे, तो हमारे घर पर ये सारी चीज़ें बनती थी. मैं ऐसा सोचता हूँ कि मध्यकालीन भारत में शरबत के अतिरिक्त कुलीन वर्गों केपास कुछ लज़ीज़ खाने के लिए था, तो वह थी कुल्फी. आइस क्रीम आधुनिक भारत की चीज़ है.  अंग्रेजों, फ्रांसीसियों और पुर्तगालियों ने इस पदार्थ को भारत में लोकप्रिय बनाया. स्वंत्रता प्राप्ति के बाद जब भारतीय विदेश में गए, तो  कुछ और नए स्वाद भी अपने साथ लेते आये.

कम शब्दों में कहें तो ऐसा कौन है, जो इसे पसंद नहीं करता.  हम जब छोटे थे, तो गोल्डेन खाने के लिए जिद्द करते थे. बाद में, मदर डेरी की दूध से भरी आइस क्रीम खाने लगे. जब जेब में थोड़े और पैसे आये, तो क्वालिटी वाल्स खाने लगे. यूं तो यह कई स्वादों में आता है,  पर ज्यादातर लोगों को वैनिला, स्ट्राबेरी और चाकलेट का स्वाद पसंद है. इतना सब होने के बाद भी यह आम आदमी की पहुँच से दूर है.

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

La casa de Bernarda Alba या रुक्मावती की हवेली

La casa de Bernarda Alba या रुक्मावती की हवेली

फ़ेदेरिको गार्सिया लोरका का नाम भारतीय पाठकों के लिए अंजान नहीं है। वे एक स्पेनी नाटककार और कवि के रूप में तो मशहूर थे ही, साथ ही उन्होनें कई सुंदर निबंध भी लिखें हैं। बीसवीं साहित्य के वे सर्वाधिक लोकप्रिय स्पेनी साहित्यकारों में से एक हैं। एक नाटककार के रूप में वे आधुनिक स्पेनी साहित्य के शीर्ष स्तंभों में से एक हैं।

उनके कई मशहूर नाटकों में से मशहूर नाटक है : La casa de Bernarda Alba। यह कई भाषाओं में अनूदित हो चुका है, और शायद यह नाटक अब हिन्दी में भी उपलब्ध है, लेकिन हिन्दी में गोविंद निहलानी ने इसी नाटक को आधार बनाकर 1991 में एक फिल्म बनाई, जिसका नाम उन्होनें रखा, रुक्मावती की हवेली।

लोरका की रचनाओं में ग्राम्य जीवन अपनी तमाम खूबियों और विसंगतताओं के साथ उपस्थित होता है। यह तीन अंकों का नाटक है, और इसमें कोई पुरुष पात्र  नज़र नहीं आता है, इस तरह से हम यह कह सकते हैं कि इस नाटक में कोई पुरुष पात्र नहीं है। पुस्तक में बेरनारदा आल्बा के परिवार को दिखाया गया है।

बेरनारदा आल्बा एक साठ वर्षीय महिला है, और वह दूसरी बार विधवा होने के कारण एक लंबे अरसे तक वैधव्य शोक को धारण करती हैं। यह बात परिवार में उसकी पाँच बेटियों आंगुस्तिआस, माग्दालेना, आमेलिया, मारतिरिओ और आदेला, किसी को भी पसंद नहीं है। सब अपने अपने तरह से एक खुशहाल ज़िंदगी का सपना देखते हैं। ये सारे नाम प्रतिकात्मक हैं। बेरनारदा की माँ, मारीया जो एक अस्सी वर्षीय वृदधा हैं, उनकी बातों में भी सच भरा पर है, लेकिन उन्हें सुनने वाला कोई नहीं है। इसी दौरान कहीं से एक लड़का पेपे का जिक्र होता है। आंगुस्तिआस की उम्र लगभग 40 की है, वह अपनी दूसरी बहनों की तरह ही शादी करके अपना घर बसाना चाहती है। एक पुरुष प्रधान समाज में किसी को भी अपनी माँ की बन्दिशें पसंद नहीं। पिता की जायदाद की वारिस बड़ी बेटी बनती है, और इस वजह से पेपे उस पर अनुरक्त हो जाता है। नाटक का अंत आदेला द्वारा आत्महत्या कर लिए जाने से होता है, और उसकी माँ बड़े संताप से कहती है, मेरे बेटी क्वाँरी ही चल बसी। यह वाक्य नाटक के एक बड़े सच की ओर इशारा करता है, जिसका अंदाज़ा पढते वक्त नहीं होता। 

लोरका के कुछ नाटकों का हिन्दी अनुवाद 2009 में स्पेन सरकार से सहयोग से हुआ है। स्पेनी से हिन्दी में अनुवाद अरुणा शर्मा ने किया है। अच्छे साहित्य पढ़ने के शौकीनों को यह किताब अवश्य ही पढ़नी चाहिए। इसी विषय पर एक सुंदर ब्लॉग भी अङ्ग्रेज़ी में उपलब्ध है, http://bernarda-alba.blogspot.com/ जहां भारत में खास तौर इस नाटक के रंगमंच प्रस्तुति के ऊपर विस्तार से जानकारी दी गई है। 

(अगर कहीं से किसी कॉपी राइट का उल्लंघन होता है, तो ब्लॉग लेखक क्षमा प्रार्थी है, और सूचित करने के बाद यह जानकारी ब्लॉग से निकाल दी जाएगी। )

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

उड़ीसा सरकार का समर्पण

उड़ीसा सरकार का समर्पण

आज सुबह जब मैंने दैनिक जागरण का वेब पेज खोला, तो उसमें अपहृत जिलाधिकारी आर वी कृष्ण और कनिष्ठ अभियंता पबित्र मांझी की रिहाई की खबर मुझे मिली क्योंकि उड़ीसा सरकार ने उनकी अधिकांश मांगे मांग ली है। यह खबर पढ़कर अन्य देशवाशियों की तरह ही मेरा मन दुख और क्षोभ से भर उठा। 

मेरे मन में ढेर सारी बातें आईं। मैंने सोचा कि जब हम अपने ही जमीन पर इस तरह का आत्मसमर्पण कर सकते हैं, तो जब हमें बंग्लादेश आँखें दिखाता है, तो क्या गलत करता  है ? पाकिस्तान और चीन तो बड़े खतरे हैं, उनसे हम पार भी नहीं पा सकते हैं। मेरे मन में कलाम का विजन 2020 भी आया, जिसमें वे भारत को 2020 में सुपर पावर बनाने की बात करते हैं। अगर इस तरह से हम आतंकवादियों के सामने आत्म समर्पण करते रहें तो उनके हौसलों को और पर लगते रहेंगे। 

कांधार कांड को हम भूलें नहीं है। यह हमारे स्वामिभान पर एक बड़ा हमला था। कई बार एक देश के रूप में हमने  यह अंदाज़ा लगाने की कोशिश भी की है, अगर हम आतंकवादियों को नहीं छोडते तो क्या होता? फिर हमने कुछ नियम कायदे भी बनाए कि अपहरण जैसी परिस्थिति में हम क्या करेंगे। हमने इतनी काबिल फौज और पुलिस भी खड़ी की है, जो हमें बाहरी और अंदरूनी दुश्मनों से रक्षा करने में समर्थ है। फिर संसद पर हमला होता है, और आज अखबार में पढ़ने को मिलता है कि अफजल गुरु की जीवन दान की याचिका राष्ट्रपति के पास भेजी ही नहीं है, ताकि हम उसे बैठा कर खिलाते रहें। कसाब के मामले में भी हमें समय लगेगा, तो क्या इससे देश के दुश्मन और मजबूत नहीं हो रहें? 

हाँ इस श्रेणी के गद्दारों में मैं एक और वर्ग का नाम लेना चाहूँगा, जो माओवादियों के खामोश समर्थक है, और जो शहरों में रहकर उनके लिए एक वैचारिक जमीन तैयार करते हैं। अरुंधति रॉय तो अब देश विरोधी बयान ही देने का काम करती हैं। ये वही लोग है, जिन्हें देश नहीं नज़र आता। 

कौन कमजोर है, न्यायपालिका या नेता? मुझे नहीं लगता कि हमारे बहादुर सिपाही कहीं से कमजोर हैं, क्योंकि नारायणपुर में  घात लगा कर उनपर बेरहमी से हत्या कर दी जाती है और हमारे नेता बस यूंही देखते ही रह जाते हैं। कहीं से कोई कार्रवाई नहीं। आज हम एक अधिकारी को बचाने के लिए आतंकवादियों से सौदा करते हैं, तो कल ये किसी नेता का अपहरण करेंगे तो हम किस स्तर तक नीचे गिरेंगे? यह एक सोचने लायक विषय है। सिर्फ देशभक्ति के नारे लगाकर देश नहीं मजबूत बनता है। 

सच में हम कहीं से भी मजबूत नहीं है। अपने घर में भी हम सुरक्षित नहीं.... 
ये हालात कब बदलेंगे? समस्याओं की तरह प्रश्न बहुत है, समाधान नहीं। 


शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

Psycho, मनोविज्ञान पर आधारित एक क्लासिक फिल्म!

Psycho

फिल्म के एक खास पल का दृश्य !
अगर कहीं से किसी कॉपी राइट का उल्लंघन होता है, तो ब्लॉगर
 क्षमा प्रार्थी है  और यह फोटो निकाल दी जाएगी। 
सामान्य रूप से हम हिन्दी फिल्मों के शौकीन अपने हिन्दी सिनेमा से इतर, इधर उधर कम ही तांक झांक करते हैं।  हम यह मान कर चलते हैं कि हमारी फिल्मों का दुनिया में कोई मुक़ाबला नहीं है और भारतीय निर्देशकों का लोहा पूरी दुनिया मानती है। कुछ हद्द तक तो यह बात ठीक है क्योंकि फिल्मों के मामले में हम निश्चित रूप से कई अच्छी फिल्मों का निर्माण करते हैं। यहाँ तक कि अगर हम चोरी भी करते हैं, तो उसे भारतीय परिवेश में ढाल देते हैं। लेकिन, कई ऐसी अविस्मरणीय फिल्में भी हैं, जिन्हें हौलीवुड ने बहुत  तरीके से बनाया है, और सच में चुनिन्दा ऐसी फिल्मों का कोई मुक़ाबला नहीं है। फिल्म इतिहास में ये फिल्में शाश्वत हैं। 

अल्फ्रेड हिचकौक एक महान निर्देशक थे। सस्पेन्स पर आधारित फिल्में बनाने में उनका कोई मुक़ाबला नहीं है। कभी भी आपको अगर इस निर्देशक की  कोई भी फिल्म देखने को मिल जाये तो आप आँखें बंद कर इनकी कोई सी फिल्म पर भरोसा कर सकते हैं। समय समय पर मैं आपको इन फिल्मों के बारे में बताता भी जाऊंगा। आज मैं आपको रोचक फिल्मों की शृंखला में इस फिल्म के बारे में बताऊंगा। 

अपनी शादी की खातिर मारिओन क्रेन अपने ऑफिस से 40,000 अमरीकी डालर की चोरी करती है। रास्ते में भारी बरसात से बचने के लिए उसे एक रात एक सराय में शरण लेनी होती है। वहीं उसकी मुलाकात सराय के मालिक, नॉर्मन बेट्स से होती है। वह इस लड़की को खाना खाने के लिए निमंत्रण देता है। शाम में वह माँ बेटे के बीच में बहस को सुनती है। बहस का मूल मुद्दा नॉर्मन में क्रेन के लिए यौन सम्बन्धों में आकर्षण को लेकर है। बाद में नहाते वक्त मरिओन की हत्या कर दी जाती है। जब नॉर्मन मारिओन की लाश को देखता है, तो वह यह समझता है की उसकी माँ ने इस लड़की की हत्या कर दी है। अपनी माँ को बचाने के लिए, वह लाश को पर्दे में लपेट कर पैसे के साथ कर को एक दलदल में धकेल देता है। लेकिन मूल कहानी यहाँ से शुरू होती है कि मारिओन की हत्या किसने की है। जब हम सच को अपने सामने देखते हैं तो इस फिल्म और इसके निर्देशक की तारीफ किए बगैर नहीं रह सकते। कहानी के रहस्यों को पूरा न खोलते हुए मैं बस इतना ही कहना चाहूँगा कि मारिओन की हत्या दरअसल नॉर्मन ने ही की है, मगर यह पूरा सच नहीं है। 

मूल रूप से रोबर्ट ब्लॉक के उपन्यास Psycho पर आधारित यह फिल्म अपनी कहानी की वजह से एक अति सुंदर फिल्म है। हाँ, कुछ दृश्यों में एक छोटे बच्चे को डर लग सकता है, मगर 13 वर्ष से अधिक के व्यक्तियों के लिए यह एक लाजवाब कृति है। 

हाँ आखिर में एक बात और, फिल्म देख कर आप अपनी टिप्पणियों को देना न भूलिएगा। 

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

लासारिल्यो दे तोरमेस

लासारिल्यो दे तोरमेस

कई ऐसी साहित्यिक रचनाएँ होती हैं, जो समय के साथ साथ अमर होती जाती  हैं। लासारिल्यो दे तोरमेस की कथा भी उन्हीं अप्रतिम रचनाओं में से एक है। मूल रूप से स्पेनी भाषा में लिखे गए इस उपन्यास/ आत्मकथा/ पत्र  के पाण्डुलिपि और रचनाकल के बारे में तो ठीक ठीक पता नहीं है, मगर इस पुस्तक के तीन संस्करण स्पेन के तीन विभिन्न शहरों में 1554 ई॰ में प्रकाशित हुये और उसके बाद साहित्य में आत्मकथा और पत्राचार शैली तो अस्तित्व में आई ही, कई लोग उपन्यास विधा के जन्म का श्रेय इस रचना को भी देते हैं। 

मध्यकालीन यूरोप में सामान्य तौर पर वीरता, शूरवीरों की कथा, प्रेम कहानियाँ और कुलीनों से संबन्धित विषय पर रचनाएँ गीतिकाव्य में लिखे जाते थे। स्पेन तत्कालीन समय में यूरोप के सर्वाधिक विकसित देश के रूप में अवस्थित था। अगर उसे कोई चुनौती देने वाला था, तो वह पुर्तगाल ही था, जो किसी भी तरह से उसका पिछलग्गू नहीं बनना चाहता था। दोनों के पास अपार संसाधन से भरपूर उपनिवेश थे, ये देश अपने उपनिवेशों के बदौलत बहुत तेज़ी से तरक्की कर रहे थे और साथ में बड़े पैमाने पर ईसाईयत का प्रचार भी कर रहे थे। अपने विशाल उपनिवेशों की वजह से ये देश आर्थिक रूप से बहुत सम्पन्न थे। 

ठीक इसी समय गद्य विधा में एक पतली सी रचना प्रकाशित होती है, जिसमें निम्नस्तरीय आदमी किसी उच्चस्तरीय व्यक्ति को एक पत्र लिख कर अपने में पूरी जानकारी देता है, और इस तरह से पाठक समाज के दबे कुचले लोगों के बारे में जानना शुरू करता है कि दरअसल उसके माता पिता एक धर्मपरिवर्तित ईसाई हैं। पिता की मृत्यु के बाद उसकी माँ एक काले आदमी से संबंध बनाती है, ताकि वह अपने बच्चों की सही तरह से परवरिश कर सके। जब वह थोड़ा बड़ा होता है, तो उसकी माँ उसे घर से निकलते समय उसे नेक बनने की शिक्षा देती है, मगर अंत में वह अपनी नेकी  को तो बरकरार रख पाता है, मगर इस प्रक्रिया में उसे समाज के कई लोगों के सेवक के रूप में कार्य करना पड़ता है। वह ज़िंदगी के कई सबक को सीखता है, और देखता है कि लोग कैसे अपने स्वार्थ के लिए कई तरह के ढोंग रचते है और धर्म का सहारा लेते हैं। अंत में, वह पादरी के एक रखैल से विवाह करता है ताकि आने वाली उसकी ज़िंदगी सुखमय हो सके। ईसाई धर्म के कैथोलिक  वर्ग में पादरियों के लिए यौन संबंध का निषेध है। मूल कथा के साथ अध्यायों के हरेक अध्याय में उसकी ज़िंदगी के एक पक्ष को दिखा गया है, और इस तरह से समाज के एक चेहरे को भी हम देखते हैं। कहानी में मात्र तीन नाम हैं, बाकी पात्रों को उनके पेशे के नाम से पुकारा गया है। ज़िंदगी में उसके भी कुछ सपने हैं, वह भी एक इज्ज़तदार आदमी बनना चाहता है, और इस पूरी प्रक्रिया में अपने ज़िंदगी में आए कई महत्वपूर्ण पड़ावों का तो वह जिक्र करता है, मगर कुछ को वह अधूरा ही छोड़ देता है, और कुछ घटनाओं का वह नाम तक नहीं लेता| अंत मे, उसके अनुसार उसके पास एक सम्मानजनक काम होता है, और एक सम्मानित” पत्नी| पूरी आपबीती आत्मकथातम्क शैली में लिखी गई है|

पुस्तक के प्रकाशन के कुछ वर्षों के अंदर ही स्पेन में इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, मगर प्रतिबंधित होने के बाद भी यह खूब पढ़ी गई और इसका कई विदेशी भाषाओं जैसे, अङ्ग्रेज़ी, जर्मन, इतालवी, फ्रांसीसी, डच भाषाओं में 100 वर्षों के अंदर ही इसका अनुवाद हो गया। इस पुस्तक के साथ ही पिकारेस्क विधा का जन्म हुआ । अङ्ग्रेज़ी में चार्ल्स डिकेंस के मशहूर उपन्यास ओलिवर ट्विस्ट (Oliver Twist) पर भी इस उपन्यास का प्रभाव साफ झलकता है।  गत वर्ष हिन्दी भाषा में इसका अनुवाद स्पेन के साहित्य एवं संस्कृति मंत्रालय  के सहयोग से हुआ है। 

लासारिल्यो दे तोरमेस की कथाउसके सौभाग्य और उसकी विपत्तियाँ इस पुस्तक के हिन्दी अनुवाद का शीर्षक है। चिरस्थायी महान रचनाओं में से एक इसे पढ़ते वक्त आप हँसते हँसते लोट पोट बिना नहीं रह सकेंगे।